Mahabharat: भगवान शंकर से गांधारी को मिला था सौ पुत्रों का वरदान

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प्रारब्ध अध्यात्म डेस्क, लखनऊ


संसार की पतिव्रता देवियों में गांधारी का विशेष स्थान है। ये गन्धर्वराज सुबल की पुत्री और शकुनि की बहन थीं। इन्होंने कौमार्यावस्था में भगवान् शंकर की आराधना करके उनसे सौ पुत्रों का वरदान प्राप्त किया था।


जब इनका विवाह नेत्रहीन धृतराष्ट्र से हुआ था। उन्होंने शादी के बाद ही अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली। उन्होंने सोचा कि जब हमारे पति नेत्रहीन हैं, तब मुझे भी संसारको देखनेका अधिकार नहीं है। पति के लिये इन्द्रियसुख के त्याग का ऐसा उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता, इन्होंने ससुराल में आते ही अपने श्रेष्ठ आचरण से पति एवं उनके परिवार को मुग्ध कर दिया।


देवी गांधारी पतिव्रता होने के साथ अत्यन्त निर्भीक और न्यायप्रिय महिला थीं। उनके पुत्रों ने जब भरी सभा में द्रौपदी के साथ अत्याचार किया, तब इन्होंने दु:खी होकर उसका खुला विरोध किया। जब इनके पति महाराज धृतराष्ट्र ने दुर्योधन की बातों में आकर पाण्डवों को दुबारा द्यूत के लिये आमन्त्रित किया, तब इन्होंने जुए का विरोध करते हुए अपने पतिदेव से कहा - 'स्वामी! दुर्योधन जन्म लेते ही गीदड़ की तरह से रोया था, उसी समय परम ज्ञानी विदुरजी ने उसका त्याग कर देने की सलाह दी थी, मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह कुल-कलङ्क कुरुवंश का नाश करके ही छोड़ेगा, आप अपने दोषों से सबको विपत्ति में मत डालिये, इन ढीठ मूर्खों की हाँ-में-हाँ मिलाकर इस वंश के नाश का कारण मत बनिये, कुलकलङ्क दुर्योधन को त्यागना ही श्रेयस्कर है, मैंने मोहवश उस समय विदुर की बात नहीं मानी, उसी का यह फल है, राज्य लक्ष्मी क्रूर के हाथ में पड़कर उसी का सत्यानाश कर देती हैं, बिना विचारे काम करना आपके लिए बड़ा दु:खदायी सिद्ध होगा। गांधारी की इस सलाह में धर्म, नीति और निष्पक्षता का अनुपम समन्वय है।


जब भगवान् श्रीकृष्ण सन्धिदूत बनकर हस्तिनापुर गये और दुर्योधनने उनके प्रस्तावको ठुकरा दिया तथा बिना युद्धके सूईके अग्रभर भी जमीन देना स्वीकार नहीं किया, इसके बाद गान्धारीने उसको समझाते हुए कहा - 'बेटा! मेरी बात ध्यानसे सुनो, भगवान् श्रीकृष्ण, भीष्म, द्रोणाचार्य तथा विदुरजीने जो बातें तुमसे कहीं हैं, उन्हें स्वीकार करने में ही तुम्हारा हित है, जिस प्रकार उद्दण्ड घोड़े मार्ग में मूर्ख सारथि को मार डालते हैं, उसी प्रकार यदि इन्द्रियों को वश में न रखा जाय तो मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है, इन्द्रियाँ जिसके वश में हैं, उसके पास राज्यलक्ष्मी चिरकालतक सुरक्षित रहती हैं। भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन को कोई नहीं जीत सकता, तुम श्रीकृष्ण की शरण लो, पाण्डवों का न्यायोचित भाग तुम उन्हें दे दो और उनसे सन्धि कर लो, इसी में दोनों पक्षों का हित है युद्ध करने में कल्याण नहीं है। दुष्ट दुर्योधन ने गांधारी के इस उत्तम उपदेश पर ध्यान नहीं दिया, जिसके कारण महाभारत के युद्ध में कौरव पक्ष का संहार हुआ।


देवी गांधारी ने कुरुक्षेत्र की भूमि में जाकर वहाँ महाभारत के महायुद्ध का विनाशकारी परिणाम देखा, उनके सौ पुत्रों में से एक भी पुत्र शेष नहीं बचा, पाण्डव तो किसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से गांधारी के क्रोध से बच गए, किंतु भगवान् श्रीकृष्ण को उनके शाप को शिरोधार्य करना पड़ा । यदुवंश का परस्पर कलह के कारण महाविनाश हुआ। महाराज युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के बाद देवी गांधारी कुछ समय तक पाण्डवों के साथ रहीं। और अन्त में अपने पति के साथ तपस्या करने के लिये वन चली गईं। उन्होंने अपने पति के साथ अपने शरीर को दावान्गि में भस्म कर डाला। गांधारी ने इस लोक में पति सेवा करके परलोक में भी पति का सान्निध्य प्राप्त किया, वे अपने नश्वर देह को छोड़कर अपने पति के साथ ही कुबेर के लोक में गईं, पतिव्रता नारियों के लिये गांधारी का चरित्र अनुपम शिक्षा का विषय है।

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