भगवान श्रीराम ने उस दौरान में हनुमान जी को समझायी थी व्यवहारिक कूटनीति
प्रारब्ध आध्यात्म डेस्क
भगवान श्रीरामचन्द्र जी प्रतिदिन राज्यसभा में बैठकर जनमानस कि पीड़ा सुनते और उसका निराकरण करते थे। एक दिन च्यवनऋषि अपने शिष्यों के साथ राज्यसभा में पहुंचे। उन्होंने बताया कि मथुरा का शासक लवणासुर बहुत अत्याचारी है। उसके तांडव से मथुरा की जनता नगर छोड़कर से पलायन कर रही है। यह सुनने के उपरांत भगवान श्रीराम ने सुमंत जी से सारी जानकारी के साथ अगले दिन राज्यसभा में प्रस्तुत होने की आज्ञा दी।
दूसरे दिन राज्यसभा में जो साक्ष्य दिये गए, उससे यह सिद्ध हुआ कि ऋषियों की बात सही है। शत्रुघ्न ने यह कार्य करने का अनुरोध किया, लेकिन भगवान श्रीरामचन्द्र जी मौन रहे। यह देखकर हनुमानजी जी से रहा नहीं गया। उन्होंने भगवान से पूछा कि प्रभु आपकी चिंता का कारण क्या है?
उन्होंने भगवान श्रीराम से सवालिया लहजे में कहा कि लवणासुर को भगवान शिव का त्रिशूल मिला है, इसलिए आप चिंतित है? शत्रुघ्न उसे पराजित नहीं कर सकेंगे। कौशलाधीश ने कहा- नहीं हनुमंत, ऐसी बात नहीं है। मेरी चिंता का कारण कुछ और है।
सुमंत जी ने जो परिपत्र मुझे दिया है, उसके अनुसार लवणासुर के पास कोई संतान नहीं है। उसने अपने सगे सम्बन्धियों को भी मार डाला है। नीति कहती है कि राज्य और नागरिक दोषी नहीं होते। शासक गलत होते हैं। यदि हम शासक को हटा रहे हैं तो उसका विकल्प अवश्य होना चाहिए, नहीं तो राज्य में अराजकता फैल जाएगी।
भगवान श्रीराम ने हनुमान जी से कहा कि लंका, किष्किंधा आदि राज्यों में मैंने अत्याचारी शासकों के योग्य उत्तराधिकारी को राज्य गद्दी पर आसीन कराया था। मथुरा में क्या विकल्प है? यदि कोई उत्तराधिकारी नहीं है तो शत्रुघ्न यह उत्तरदायित्व लें तो उन्हें अनुमति प्रदान करता हूं।
अपने ज्येष्ठ भ्राता और अयोध्या नरेश की मंशा भांपते ही शत्रुघ्न ने इस पर सहमति जताई और वह मथुरा राज्य का कार्यभार देखने के लिए तैयार हो गए। शत्रुघ्न को भगवान ने एक बाण दिया जो अचूक था। उन्होंने कहा अपरिहार्य हो, तभी चलाना। भगवान श्रीराम ने अपने अनुज शत्रुघ्न को समझाया कि इसका प्रयोग मैंने रावण के विरुद्ध भी नहीं किया था। इस बात से ही आप अंदाजा लगा सकते हैं कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र जी कितने महान राजा थे और उनकी कूटनीति कितनी व्यवहारिक थी।
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