प्रारब्ध अध्यात्म डेस्क, लखनऊ
एक दिन आकाश में विचरण करते हुए सूर्यदेव ने काशी में भगवान विष्णु को विश्वनाथजी की पूजा करते हुए देखा। वे कौतूहलवश दूसरे रुप में आकाश से उतर आए और भगवान विष्णु के समीप जा बैठे। जब भगवान विष्णु ने शिवपूजा समाप्त की, तब सूर्यदेव ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। भगवान विष्णु ने भी उन्हें आदरपूर्वक अपने पास बिठा लिया।
अवसर पाकर सूर्यदेव ने पूछा - "जगत्पते! आप संपूर्ण विश्व के पालक तथा समस्त जगत् की अंतरात्मा हैं। यह समस्त संसार आपसे ही प्रकट होता है तथा आपमें ही लय को प्राप्त होता है। आप यह किसकी पूजा कर रहें हैं? आपके इस आश्चर्यमय कार्य को देखकर अपने कौतूहल को शांत करने मैं आपके पास आया हूं।"
भगवान विष्णु ने कहा- भास्कर! सब कारणों के भी कारण उमापति महादेव ही यहां सर्वपूज्य हैं। जन्म, मृत्यु और जरा का नाश करने वाले एकमात्र मृत्युंजय ही पूज्य देवता हैं। जो त्रिलोचन के सिवा अन्य किसी की पूजा करता है, वह आंख वाला होने पर भी अन्धा ही है।
यहां भगवान शिव के श्री विग्रह की पूजा करके मनुष्य चारों पुरुषार्थों को सहज ही प्राप्त कर लेता है। काशी में शिवलिंग की आराधना करके मनुष्य क्षण भर में सैकड़ों जन्मों के संचित पाप समूह से मुक्त हो जाता है।
अर्थात् शिवलिंग की आराधना से बढ़कर तीनों लोकों में दूसरा पुण्य नहीं है। शिवाभिषेक के सेवन से सब तीर्थों में स्नान का फल प्राप्त हो जाता है। हे सूर्य तुम भी महान तेज को बढ़ाने वाले महेश्वर के श्री विग्रह की पूजा करो।
भगवान विष्णु का यह वचन सुनकर सूर्यदेव भगवान् विष्णु को गुरु मानकर उनके उत्तर भाग में आज भी स्थित हैं इसलिए वे केशवादित्य के नाम से प्रसिद्ध हैं। वे काशी में अपने भक्त के अज्ञानमय अंधकार को दूर करते हैं और उनसे प्रसन्न होकर उन्हें मनोवांछित सिद्धि देते हैं।
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