संसार में स्त्री के बगैर नहीं पुरुष का अस्तित्व

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  • हर पुरुष में एक स्त्री भी होती है, बगैर उसके नहीं जीवन



प्रारब्ध अध्यात्म डेस्क, लखनऊ

शास्त्रों के अनुसार सप्तऋषियों में एक ऋषि भृगु थे। वो स्त्रियों को तुच्छ समझते थे। वो शिवजी को तो गुरुतुल्य मानते थे, किन्तु माँ पार्वती को अनदेखा करते थे। एक तरह से वो माँ पार्वती को भी आम स्त्रियों की तरह साधारण और तुच्छ ही समझते थे। महादेव भृगु के इस स्वभाव से चिंतित और खिन्न रहते थे। 


एक दिन शिव जी ने माता पार्वती से कहा कि आज आप भी ज्ञान सभा में मेरे साथ चलें। माँ ने शिव जी के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया और ज्ञान सभा में शिव जी के साथ विराजमान हो गईं।

 
सभी ऋषिगण और देवताओं ने माँ और परमपिता को नमन किया। उनकी प्रदक्षिणा की और अपना अपना स्थान ग्रहण किया। किन्तु ऋषि भृगु, माँ पार्वती और शिव जी को साथ देख कर थोड़े चिंतित थे। वह समझ नहीं पा रहे थे कि केवल शिव जी की प्रदक्षिणा कैसे करें।

 
बहुत विचारने के बाद ऋषि भृगु ने महादेव जी से कहा कि वो पृथक खड़े हो जाएं। शिव जी जानते थे भृगु के मन की बात। उन्होंने माँ को देखा, माता ने उनके मन की बात पढ़ ली और वो शिव जी के आधे अंग से जुड़ गईं और अर्धनारीश्वर रूप में विराजमान हो गईं। 


अब तो भृगु और परेशान, कुछ पल सोचने के बाद भृगु ने एक राह निकाली। भवरें का रूप लेकर शिवजी के जटा की परिक्रमा की और अपने स्थान पर खड़े हो गए। 

माता को भृगु के इस कृत्य पर क्रोध आ गया। उन्होंने भृगु से कहा कि भृगु तुम्हें स्त्रियों से इतना ही परहेज है तो क्यूँ न तुम्हारे में से स्त्री शक्ति को पृथक कर दिया जाए।


और माँ ने भृगु से स्त्रीत्व को अलग कर दिया। अब भृगु न तो जीवितों में न मृत थे। उन्हें आपार पीड़ा हो रही थी। वो माँ से क्षमा याचना करने लगे। तब शिव जी ने माँ से भृगु को क्षमा करने को कहा। माँ ने उन्हें क्षमा किया।

उसके बाद माता पार्वती बोलीं संसार में स्त्री शक्ति के बिना कुछ भी नहीं है। बिना स्त्री के प्रकृति भी नहीं, पुरुष भी नहीं। दोनों का होना अनिवार्य है और जो स्त्रियों को सम्मान नहीं देता वो जीने का अधिकारी ही नहीं है। 


आज संसार में अनेकों ऐसे सोच वाले लोग हैं। उन्हें इस प्रसंग से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है। वो स्त्रियों से उनका सम्मान न छीनें। खुद जिएं और स्त्रियों के लिए भी सुखद संसार की व्यवस्था बनाए रखने में योगदान दें।

जय माँ जगतजननी

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