औरत के कपड़े और साज-सिंगार भी तो देखिए...

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अंधेरी रात का शहर और अकेली औरत-2


  • अजय शुक्ल


वह औरत सड़क हादसे का शिकार हुए पति को देखने के लिए तीन सौ किलोमीटर दूर से हांफती-भागती चली आ रही थी और सोहरामऊ जैसी गुमनाम-अनजान जगह जा रही थी; और जनता के रखवाले उसे दबोच कर ठहाके लगा रहे थे!


यह मेरे जैसे आदमी के लिए बर्दाश्त करने की बात नहीं थी। मैं ग़ुस्से से दहाड़ उठा, "शरम नहीं आती तुम लोगों को!?"


मैंने पुलिसिया लाठी खाने की मानसिकता बना ली थी। मगर, आश्चर्य! सिपाही मेरे ग़ुस्से को बर्दाश्त कर गए!! शायद वे सड़क पर निस्सहाय खड़े आम आदमी के क्रोध से सहम गए थे!!!


मेरी हिम्मत और बढ़ गई। मैंने उन्हें फिर डपटा। इस बार वे हंसे नहीं। एक सिपाही बोला, "भाई साहब, ज़रा इस औरत के कपड़े और साज-सिंगार भी तो देखिए..." (हां भई, हां। कपड़ों से पहचानने वाले उस ज़माने में भी पाए जाते थे)


"क्या है इसके कपड़ों में?" मैंने पूछा।


"लो, खुद ही देख लो..." यह कहते हुए एक सिपाही ने औरत के ऊपर टॉर्च जला दी।


औरत ने सुर्ख-लाल साड़ी पहन रखी थी। ओठों पर साड़ी के रंग से मैच करती लिपस्टिक थी। चेहरे पर हवाइयों के साथ मेकप भी था, जिस पर आंसू बहने के कारण काजल के धब्बे आ गए थे।


मर्द मैं भी हूं। सो, मेरे दिमाग़ में लाखों साल से पड़े एल्गोरिदम ने सिपाही का इशारा डीकोड करने में देर नहीं लगाई। लेकिन यह दिमाग़ हज़ारों साल की विकास यात्रा भी तो कर चुका है! तो, उसी विकसित मन ने पल भर में संशय के परिंदे को उड़ा दिया: 'अगर यह वही है तो भी क्या? क्या तुम उसे बोटी के लिए लार टपकाते कुत्तों के लिए छोड़ दोगे?'


मेरा मन निर्मल हो चुका था। मैंने सिपाहियों का इशारा समझने से इनकार कर दिया, "क्या है इन कपड़ों में? अच्छे तो हैं। बस थोड़े सस्ते वाले हैं।"


"तुम अंधे हो या ताली बजाने वाले" सिपाही इशारे में गाली देकर बोला, "ये रंडी है, साली! रंडी!!"


"तो? रंडी होना गुनाह है क्या" मैं सिपाहियों को क़ानून समझाने पर उतर आया था।


"नहीं जी, रंडी होना तो बड़े पुण्य की बात है!!"


"पाप और पुण्य सन्त-महात्मा जानें पर वेश्यावृत्ति किस धारा के तहत अपराध है?"


"तो, अपराध क्या है?"


"ग्राहक पटाते पकड़ा जाना अपराध है और सार्वजनिक तौर पर अश्लीलता का प्रदर्शन अपराध है" मैं अपने सीमित क़ानूनी ज्ञान के आधार पर समझाता चला जा रहा था।


रात सुबह की तरफ़ तेज़ी से भागती जा रही थी और वर्दीधारियों का सब्र और भलमनसाहत चुकती जा रही थी। सहसा एक सिपाही लाठी उठाकर मेरी ओर दौड़ा। लेकिन वह मुझ पर वार कर पाता उससे पहले मेरे साथी रॉबिन डे के अंदर बजरंगबली जाग गए। खास कनपुरिया शब्दावली उच्चारते हुए उन्होंने सिपाही का डंडा पकड़ लिया, "ख़बरदार, जो मेरे सम्पादक जी की तरफ़ आंख भी उठाई तो वर्दी उतरवा दूंगा।"


रॉबिन के एक वाक्य ने मंत्र की तरह काम किया। डंडा गायब हो गया और वर्दीधारी खड़े होकर बुदबुदाने लगे, "भाई साहब, पहले बताना था कि पत्रकार हो...अभी कुछ ऊंच-नीच हो जाता तो...हम लोग पाप से बच गए...अब ये आपकी हैं, जहां चाहें ले जाएं।"


आखिरी बात मुझे अपनी बिरादरी के प्रति अश्लील टिप्पणी प्रतीत हुई। मैंने तमक कर कहा, "हम क्यों ले जाएंगे? इन्हें घंटाघर जाना है, इसी रिक्शे पर चली जाएंगी– क्यों?" मैंने उस औरत की ओर मुख़ातिब होकर कहा।


औरत ने सहमति में सर हिला दिया।


"लेकिन हम ई मेहरिया का न लइ जइबे।" यह रिक्शेवाला था जो अब किसी पचड़े में नहीं पड़ना चाहता था। मैंने उसे बहुत समझाया पर वह न माना। उसने औरत को उतार दिया और तेज़ी से पेडल मारते हुए बड़े चौराहे की ओर निकल गया।


रिक्शा जा चुका था। सिपाही भी मुंह छिपा कर कहीं चले गए थे। सड़क पर अब मैं था। रॉबिन था। और थी वह। वह औरत। वह मेरी कोई न थी।


"तुम इसे घंटाघर छोड़ आओ" मैंने रॉबिन से कहा, "मैं यहां से पैदल हर्ष नगर (घर) निकल जाऊंगा। घर में वो परेशान हो रही होंगी।"


"न भइया न" रॉबिन ने अकेले जाने से इनकार कर दिया,"आगे मूलगंज में फिर नाका होगा...वहां फिर सिपाही रोक लेंगे।"


हम तीनों साथ चल दिए। नई सड़क पहुंचते-पहुंचते एक रिक्शा मिल गया। हम तीनों बैठ गए। मैं खुद से खुश नहीं था। तनाव और खीझ भी थी। मेरी तरह रॉबिन भी चुप था। चुप्पी उस औरत ने तोड़ी, "आपने मेरे लिए बहुत किया..."


मैं कुछ नहीं बोला और दाहिनी ओर सड़क को देखता रहा। कुछ देर बाद औरत ने अपना बैग खोला। कुछ सरसराहट-खरखराहट सुनाई दी तो देखने लगा। औरत ने पान-पराग की लड़ी निकाल ली थी। "लीजिए खाइए" उसने एक पाउच मेरे हाथ में रख दिया, "खाइए-खाइए, तुलसी भी है।"


मुझे तम्बाकू की तेज़ तलब हो रही थी लेकिन मैंने ऑफर ठुकरा दिया। औरत अब क़तई शांत थी। वह मंद-मंद मुस्करा भी रही थी। मैं खुद को परले दर्ज़े का आवारा महसूस कर रहा था। इस बीच मूलगंज चौराहा पार हो गया। कई सिपाही बैठे थे। इस बार औरत के चरित्र पर किसी को शक़ न हुआ। दो मुस्टंडों के बीच जो बैठी थी।


"भाई साहब" वह औरत फिर बोली, "यह बताइए कि क्या इतनी रात में मेरा जाना ठीक होगा?"


जवाब में मैंने उसे सिर्फ घूरा। ग़ुस्से से। बुरी तरह।


"नाराज़ न हों" वह मुस्कराते हुए बोली, मुझे थाने ही जाना है। सोहरामऊ थाने। वहां भी तो पुलिस वाले होंगे!"


"तो, मैं क्या करूँ? तुम्हारे साथ 65 किमी दूर सोहरामऊ थाने चलूं?


"नहीं सर जी। मैं तो यह कह रही थी कि पास में कोई होटल हो तो मुझे वहीं ठहरा दीजिए। पति हादसे का शिकार हो चुका है। कहीं मैं भी किसी हादसे का शिकार न हो जाऊं।"


"अब तुम चुप रहो। सवा तीन बजा है। सोहरामऊ पहुंचते-पहुंचते उजाला हो जाएगा"


रिक्शा थाना कलक्टरगंज पार करके घंटाघर क्षेत्र में पहुंचा ही था कि मुझे कुछ वुल्फ विसिल्स (सीटियां) सुनाई दीं। सीटियों का टारगेट हमारा रिक्शा ही था। बस अड्डा पास ही था। हम रिक्शे से उतर पड़े। देखा, हमारे दाएं-बाएं 16-18 साल के लफंगे मंडरा रहे हैं। एक ने दूर खड़े किसी लड़के को बुलाया, "अबोय चूतिये, इधर आ जा, वो फिर आई है।"


मैंने अपने साथ खड़ी औरत को कटखनी निगाहों से देखा। उसने आंखें ज़मीन पर गड़ा दीं। फिर बोली, "मेरा मायका यहीं बगल में तिलियाने में है। ये वहीं के लौंडे हैं। मुझे पहचानते हैं।"


लड़कों की संख्या तीन-चार से छह-सात हो गई थी। उन्होंने हम तीनों को घेर रखा था। वे औरत के साथ छीना-झपटी पर आमादा थे। "कित्ते में ग्राहक पटा कर लाई हो...वाह, एक साथ दो-दो ग्राहक..हमको भी ले लो एक से भले दो...दो से भले तीन।"


मैं खुद से ग़ुस्सा था। अपने लल्लूपन को कोस रहा था। खुद पर तरस खा रहा था। पर इसके बावजूद मैं यह भी देख रहा था कि वह औरत अब और ज़्यादा परेशान थी। पुलिस वालों ने तो सिर्फ रोका था। यहां तो मामला नोच-खसोट तक जा पहुंचा था।


तभी एक हूटर की आवाज़ सुनाई दी। शायद कोई अफसर आया था। उसी वजह से कुछ पुलिस वाले उस जगह खड़े रिक्शों व भीड़ को खदेड़ने लगे। और, लफंगे भाग गए। मैंने तुरन्त उस औरत का हाथ पकड़ा और बस अड्डे की तरफ दौड़ पड़ा। बस में कुछ विलम्ब था। औरत को वहीं खड़ा कर रॉबिन के साथ मैं पान खाने के लिए कुछ दूर निकल गया। और, जब हम लौटे तो औरत के बगल में एक 'केश्टो मुखर्जी' को खड़ा पाया। केश्टो खड़े क्या थे, उस औरत के कंधे पर लदे हुए थे।


केश्टो भभका मार रहे थे। रॉबिन ने कनपुरिया शैली में उनकी खबर ली, "क्यों xxx के चच्चा, यो का करैं मां लाग हौ माxxxद।"


केश्टो वैसे ही अपनी हिचकीमार स्टाइल में बेशर्मी से हंसे। "मेरी बेटी है" वे बोले, "आयम हर अंकल।"


रॉबिन ने इस गंजे कमीने आदमी की खोपड़ी में क़ायदे का झापड़ लगाया। जवाब में वह अपने ऊंचे कुल और नौकरी का हवाला देने लगा। "आर्मी से रिटायर्ड हूं मैं।" इतना कहके इस दारूबाज़ बुड्ढे ने अदृश्य अधिकारी को ज़ोरदार सैल्युट। इतना ज़ोरदार कि खुद भरभराकर गिर गया।


वह उठा तो मैंने पूछा, "अंकल, कहां जा रही है सवारी?"


"इलाहाबाद।"


"और, आपकी बेटी कहां जा रही है?"


"पता नहीं।" उन्होंने पूरी सच्चाई से जवाब दिया।


इस बीच लखनऊ की बस आ गई। मैंने हाथ देकर रुकवाई और दो घंटे की अपनी साथिन को अपने हाथ से धक्का देकर भीतर ठूंस दिया।


बस रेंग ही रही कि पता नहीं किस तरह उसके सामने केश्टो मुखर्जी आ गए। बस चरचरा कर रुक गई। कंडक्टर ने दरवाज़ा खोला और केश्टो अंकल लपक कर चढ़ गए। बस फिर चल दी। भीतर से केश्टो अंकल की आवाज़ सुनाई दे रही थी...मैं आ गया बेटी, मैं आ गया...।


(समाप्त)


 

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