...और, रिक्शे पर एक युवती बैठी

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अंधेरी रात का शहर और एक अकेली औरत

  • अजय शुक्ल


औरत के लिए भरी दोपहरी में भी शहर में अकेले निकलना कितना कठिन होता है, यह बात औरत ही जानती है। लेकिन अगर उसे कहीं आधी रात में अकेले बाहर निकलना पड़े तो? तो उस पर क्या बीत सकती है? इसका जवाब शायद ही कोई औरत जानती हो। यही बताने के लिए यह रिपोर्ताज़ लिखा है। कतिपय मर्दाना आंखें इस सत्यकथा की मुख्य पात्र को ग़लत नज़रों से देख सकती हैं। पर आप ऐसा न करेंगे। आप सब मेरे friends हैं। भरोसा है आप पर।

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वर्ष 1994 के जाड़ों की एक रात। तब मैं 'स्वतंत्र भारत' कानपुर में काम करता था। दो बज चुके थे। मैं सुबह का एडिशन फाइनल कर चुका था। अब बस घर लौटना था। सिविल लाइन से हर्ष नगर। उस रात मेरे पास संयोगवश कोई वाहन न था। मैं पैदल निकल पड़ा। अभी हडर्ड स्कूल तक ही पहुंचा था कि पीछे से आवाज़ आई, ''भइया, हमहूं।" यह रॉबिन डे थे। मेरे पेस्टर। पेस्टर नहीं जानते तो आप पेजीनेटर कह लीजिए।

रॉबिन पाटलिपुत्र टाइम्स में काम कर चुके थे। वे जगन्नाथ मिश्र और माधवकांत मिश्र का कोई किस्सा सुनाने लगे। बातों-बातों में परेड चौराहा आ गया। कुहासा घना था।आसमान टपक रहा था। हम रिक्शा तलाश रहे थे। रॉबिन की बंगाली आंखों को मुझसे पहले रिक्शा दिखा। वह कैनिको ड्राइक्लीनर्स के बाहर खड़ा था। "खाली हो?" मैंने ज़ोर से आवाज़ लगाकर रिक्शेवाले से पूछा।


हम जवाब का इंतजार करते-करते रिक्शे के पास जा पहुंचे। रिक्शेवाला एक किनारे खड़ा था। रिक्शे के पांवदान पर अपना बूट टिकाए एक ख़ाकीवर्दीधारी खड़ा था। और, रिक्शे पर एक युवती बैठी थी। युवती ने हाथ जोड़ रखे थे। वह रो रही थी और पांवदान पर रखे काले बूट को छु-छू कर इल्तिजा कर रही थी...साहब मुझे जाने दो...मैं बहुत मुसीबत में हूं...।


मैं थोड़ा और आगे बढ़ा। देखा कि कैनिको ड्राइक्लीनर्स के नीचे सहन में दो ख़ाकीवर्दीधारी स्टूल पर बैठे हैं और ठहाका लगा रहे हैं। मेरी एड्रीनल ग्लैंड सक्रिय होने लगी। मन ने खुद से पूछा: क्या लड़की का सड़क पर निकलना गुनाह है। जवाब मिला नहीं। फिर क्या था। क्रोध उमड़ने लगा। लेकिन मैंने ग़ुस्से पर क़ाबू किया और गंभीर आवाज़ में कहा, "क्यों भाईसाहब, क्या बात है?"


" कौन है बे?" वर्दीधारी रिक्शे से पांव हटाकर मेरी ओर मुखातिब हुआ, "तू क़ाज़ी है कि मुल्ला?"


"मैं कोई नहीं लेकिन मैं किसी को एक औरत की बेइज़्ज़ती नहीं करने दूंगा।" मैं अब भी शांत था मगर अपमान भरी टोन से मैं सुलगने लगा था।


सिपाही मुझे 'अंदर करने' की धमकी देने लगा। पर मैंने उसकी धमकी को नज़रअंदाज़ करके रिक्शे पर बैठी औरत से पूछा, "क्या कह रहे हैं ये लोग?"


"कहते हैं, रिक्शे से उतरो" वह रोते हुए बोली, "कहते हैं, थाने ले जाएंगे?


"क्यों?"


"कहते हैं, तुम ग़लत काम करती हो।"


"क्यों दीवान साहब" मैंने हंसते हुए पूछा, "सड़क पर चलना ग़लत काम कब से हो गया?"


"पूछो इससे कि आधी रात के बाद कहां घूम रही है और कहां जा रही है? सिपाही ने पलट कर मुझसे कहा।


मैं जानता था कि किसी के घूमने पर रोक नहीं है। तो भी मैंने औरत से पूछा कि शायद बातचीत में उसकी मुक्ति का कोई रास्ता निकल आए।


"कहां से आ रही हो?"


"अलीगढ़ से। बस से चुन्नीगंज उतरी और रिक्शे से घंटाघर जा रही हूं।"


उसका जवाब क़तई दुरुस्त था। उन दिनों अलीगढ़ और दिल्ली की बसें चुन्नीगंज बस अड्डे से ही आती-जाती थीं।


"अब कहां जा रही हो?" मैंने अगला सवाल पूछा


"घंटाघर से लखनऊ की बस पकड़ूंगी और सोहरामऊ के जाऊँगी"


"सोहरामऊ क्यों?"


"सोहरामऊ थाने से ही मुझे खबर मिली थी?"


"क्या खबर?"


"मेरे आदमी के एक्सीडेंट की। वह टिरक चलाता है।"


मेरा क्रोध चरम पर था। "देखा, किस परेशानी में है यह औरत" मैं लानत भेजते हुए सिपाहियों को मुखातिब हुआ। सिपाही हंस रहे थे।


(क्रमश आगे और शिकारी थे–पढ़ें कल)

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