रामराज्य-तीन : इंदिरा इज़ इंडिया एंड इंडिया इज़ इंदिरा
- अजय शुक्ल
अजय शुक्ल। |
"मुझे तो सबसे अच्छा लगा कि दैहिक, दैविक, भौतिक तापा, रामराज काहुहि नहि ब्यापा।" यह थे बृजेश जायसवाल जो कानपुर के हैलट अस्पताल से कोविड-19 का इलाज कर कुछ ही दिन पहले लौटे थे।
"तो फिर कोरोना क्यों फैल रहा है?" एक सवाल उछला।
"अभी रामराज आवा कहां है?" भीड़ से जवाब भी गिरा।
"तो कइसे अई? का रामचन्द्र का खुदै आय के बइठें का परी का?
"अबे लुल्ल हौ का? राम कहूँ आ सकत हैं का? बस उनका नुमाइंदा बैठेगा।"
"तो अभी किसका नुमाइंदा बैठा है? लंकापति...विभीषण का?
"अबे चुप, लंका की औलाद" एक लाठी ने खुद को ज़मीन पर पटक कर गुस्से का इज़हार किया।
"हम बोली भइया..?" सबने पार्क की गेट से घुस रहे आदमी को देखा। यह झम्मन गंजेड़ी था, जो शम्बूक की तरह विद्वद्जनों में आ बैठा था। बोला, "असली रामभक्त तो मार्ग दर्शक मंडल में चले गए हैं।"
मेरी रामायण खुली हुई थी और जनता खुद सत्य की खोज में लगी हुई थी। मुझे ठीक लगा कि जनता अपने पांव चलकर मंज़िल तक पहुंचे।
मार्ग दर्शक मंडल की बात लाठी को नागवार गुजरी। उसने खुद को ज़ोर से पटका और कहा, "सारे बुजुर्ग ठीक से रह रहे हैं...अब ज़रा मेरी बात सुनो..रामराज किसी के गद्दी में बैठने से नहीं आता। उसके लिए वैदिक और शास्त्रीय सिद्धान्तों पर चलना पड़ता है।"
"तब तो हरिजनो की पढ़ाई-लिखाई पर रोक लग जाएगी?" आशंका जताने वाले थे मैत्रेय किंजल्क।
मूर्खों की डिबेट टीवी पर होने वाली डिबेट का रूप धरती जा रही थी। खीझ कर मैंने भीड़ को खड़े होकर हौंका और बोलना शुरू किया, "मेरे मुताबिक रामराज की पहली शर्त होती है बोलने की आज़ादी। आप कुछ भी बोल सकते हैं।"
"नहीं, ऐसा हो ही नहीं सकता" यह थे लट्ठ जी यानी लाठी क्लब के मुखिया। वे बोले, "सरकर की बुराई की ही नहीं जा सकती।"
"लट्ठ जी, आपसे बहस तो हो नहीं सकती। पर आप रामायण तो सुनें...। मैंने रामायण में उत्तरकाण्ड का वह बिंदु खोल लिया जहाँ राम विद्वानों को बुलाकर उनसे चरचा कर रहे हैं।" इतना कहकर मैंने सस्वर पाठ करने लगा:
"एक बार रघुनाथ बोलाए, गुर द्विज पुरबासी सब आए
बैठे गुर मुनि अरु द्विज सज्जन, बोले बचन भगत भव भंजन
मतलब एक बार श्री रघुनाथजी के बुलाए हुए गुरु वशिष्ठजी, ब्राह्मण और अन्य सब नगर निवासी सभा में आए। जब गुरु, मुनि, ब्राह्मण तथा अन्य सब सज्जन यथायोग्य बैठ गए, तब भक्तों के जन्म-मरण को मिटाने वाले श्री रामजी वचन बोले। क्या बोले
सुनहु सकल पुरजन मम बानी, कहउँ न कछु ममता उर आनी
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई, सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई
समझे राम जी क्या कह रहे हैं? वे कह रहे हैं कि नगर निवासियों! मेरी बात सुनिए। यह बात मैं हृदय में कुछ ममता लाकर नहीं कहता हूँ। न अनीति की बात कहता हूँ और न इसमें कुछ प्रभुता ही है, इसलिए संकोच और भय छोड़कर, ध्यान देकर मेरी बातों को सुन लो और फिर यदि तुम्हें अच्छी लगे, तो उसके अनुसार करो!
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई, मम अनुसासन मानै जोई
जौं अनीति कछु भाषौं भाई, तौ मोहि बरजहु भय बिसराई
क्या समझे? राम जी कहते हैं कि वही मेरा सेवक है और वही प्रियतम है, जो मेरी आज्ञा माने और हे भाई, यदि मैं कुछ अनीति की बात कहूँ तो भय भुलाकर बेखटक मुझे रोक देना।
लाठी को रामायण अच्छी नहीं लग रही थी। वह ट्रम्प की तरह फ़ेक रामायण-फ़ेक रामायण कहते हुए शोर मचाने लगी। बोली, ऐसा कहीं होता है? पाकिस्तान में तो सवाल पूछने पर जेल में डाल देते हैं। राजा से सवाल माने राजा की तौहीन। माने राष्ट्र से सवाल। माने देशद्रोह। सुना नहीं सन 75 में बरुआ जी ने क्या कहा था! इंदिरा इज़ इंडिया एंड इंडिया इज़ इंदिरा।
लाठी बहुत गुस्से में थी। मैंने पानखोरों को शाम को गुमटी पर मिलने का इशारा किया। और, मैं रामायण समेत कर घर चल दिया।
(रामराज पर गंभीर चरचा: पढ़ें कल)
if you have any doubt,pl let me know