आंख खुली तो लिज़ मेरे चेहरे पर झुकी हुई थी...

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ब्रह्मपुत्र के पार, बादलों के बीच में : छह

  • अजय शुक्ल

अजय शुक्ल। 
भंडारी की आवाज़ के बीच अब मुझे चिड़ियों का चहचहाना भी सुनाई दे रहा था। शायद सुबह होने वाली है...मैंने सोचा और उठने की कोशिश करने लगा। मगर भंडारी ने रोक दिया:

"दास्तान खत्म होने को है। आंख मीचे पड़ा रह। बस दस मिनट और ...फिर मैं और यह लैवेंडर गर्ल दोनों चले जाएंगे...हां भाई मेरे संग लिज़ी भी है। वह हर पल साथ रहती है। कहानी का मुख्य कैरेक्टर तो वही है। मैं तो निमित्त मात्र हूं।


"हां तो मैं पटना से भाग आया। तुम्हारे घर से बरौनी और वहां से आसाम मेल पकड़ कर चल दिया। मैं बीमार था मगर जैसे ही ट्रेन रांगिया से गौहाटी की तरफ आगे चली मैं स्वस्थ होने लगा। और अगियाठोरी के आते-आते मैं एलिज़ाबेथ के ख़यालों में डूबने लगा। मुझे अब कोई ख़ौफ़ नहीं था। उसका पहाड़ से कूदना और ग्लाइड करना मुझे नॉर्मल और रोमांचक भर लग रहा था।


"ज़रा देर में ट्रेन ब्रह्मपुत्र पार करके कामाख्या स्टेशन पर खड़ी थी। और, लो लिज़ आ गई। मेरे सामने की सीट पर बैठे मुस्करा रही थी। बोली–ब्रह्मपुत्र न होती तो पटना क्या दिल्ली-गढ़वाल जहां कहता मैं चलती। पर पुरखे इस नदी को पार करने को रोक गए हैं। इसी रोक के कारण तो हमारा कामरूप क्षेत्र बदनाम हो गया। अगर तुम्हारे यहां से कोई यहां आकर किसी के प्रेम में पड़ता था तो वह वापस नहीं जा पाता था। दुल्हनें ब्रह्मपुत्र पार करने से मना कर देतीं और आदमी अपनी कामरूपसी को छोड़ न पाता। तोता-बकरा बनाने वाली सब कहानियां झूठी थीं।


"गौहाटी आ गया था। बाहर निकल कर टैक्सी पकड़ी और मैं और लिज़ शिलॉन्ग को रवाना हो गए। टैक्सी से उतरने के बाद लिज़ ने मुझे बाहों में भर लिया। उसी हालत में उसने मेरे सिर को नीचे झुकाकर कान में फुसफुसाई...आज रात शिलॉन्ग पीक आना...11 बज़े...जानते हो आज अमावस की रात है...हम लोग सारी रात उजाला करेंगे...जो मांगोगे मिलेगा...आज सुहागरात है। समर्पण की रात है। तुम भी आज्ञा मानोगे न ..माय बेबी।


"इतना कहकर लिज़ गुम हो गई। मैं अपने अपार्टमेंट पहुंच गया। 11 बजने में अभी 4 घंटे थे। मैं मिलन की तैयारियों में जुट गया। सज-संवर कर बड़ा बाजार पहुंचा। एक बुके, एक डिब्बा बेल्जियन चॉकलेट और केक खरीदकर मैं जीप का इंतज़ाम करने ऑफिस पहुंचा। पता लगा एक गाड़ी गराज़ में है और दूसरी कर्नल सिद्धू के पास।


"शिलॉन्ग पीक की दूरी 15 किमी थी। रात साढ़े नौ बज़े कोई टैक्सी वहां नहीं जाती। मैंने लाबांग के लिए टैक्सी पकड़ ली। लाबांग के बाद पहाड़ी जंगल की चढ़ाई और आगे पीक। मैं पहाड़ चढ़ने लगा। बेख़ौफ़।

"एक घंटे की मशक्कत के बाद मैं पीक पर था। पसीने से तरबतर। मेरा ईनाम वहीं बैठे मेरा इंतज़ार कर रहा था। ईनाम तेज़ी से दौड़कर मुझसे लिपट गया।


"चलो–लिज़ बोली।


"कहां? मैंने पूछा।


"ऊपर...और ऊपर। पीक के ऊपर एक और पीक है जहां जंगल के कारण कोई नहीं जाता। वहां मेरा लवनेस्ट है।


"लगभग 15 मिनट की चढ़ाई के बाद हम सचमुच एक सुंदर से कॉटेज के सामने थे। हम अंदर गए। उसने एक कैंडल जला दी। वह कॉटेज में जमा सूखी घास के ढेर पर लेट गई और हुक्म देते हुए बोली–आओ...जल्दी आओ। अमावस बस दो घंटे बाकी है। फिर यह मुहूरत निकल जाएगा। मैंने हुक्मउदूली नहीं की और उसकी पहलू में लेट गया। उसने वादा निभाया और सरेंडर कर दिया। कुछ वक्त बाद मैं लिज़ के आगोश में सो गया।


"आंख खुली तो लिज़ मेरे चेहरे पर झुकी हुई थी और सर पर हाथ फेर कर जगाने की कोशिश कर रही थी। मैंने घड़ी देखी–चार बज़े थे। पूरब बैंगनी-गुलाबी हो रहा था। सूरज निकलने में 15-20 मिनट बाकी थे। वह बोली: उठो, चलो...मेरे घर चलोगे न। वह मेरा हाथ पकड़ कर कॉटेज के बाहर ले आई और क्लिफ के किनारे खड़ी होकर बोली : चलें?


पर कैसे?


वह बोली : ऐसे


"इतना कहकर वह चोटी से कूद कर ग्लाइड करने लगी। थोड़ी देर में वह लौट आई। बोली, मेरे साथ कूदो। देखना तुम भी तैरोगे। मेरे हिचकिचाने के बीच उसने मेरा हाथ ज़ोर से पकड़ा और मुझे लेकर कूद गई। मैं नीचे पत्थर पर गिरा। फिर मैं हवा की मानिंद हल्का हो गया। मैं भी उड़ने लगा। थोड़ी देर में मैं लिज़ के बराबर उड़ रहा था।


"बस उस दिन से हम दोनों साथ उड़ा करते हैं। यहां तुम्हारे कमरे में भी हम दोनों आए थे। बादल बनकर। और सुनील अब तुम उठ सकते हो। हम जा रहे हैं सुनील..बाय..।


(और सुनील जा पहुंचा एलिज़ाबेथ के घर: पढ़ें कल)

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