एलिज़ाबेथ चीखी–डोन लीव मी माय लव...डोन-डोन डोन्ट

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ब्रह्मपुत्र के पार, बादलों के बीच में : पांच

  • अजय शुक्ल

नाहर भंडारी का मोनोलॉग जारी था। मैं अब भी बोल नहीं पा रहा था। कोशिश करता भी तो गों-गों की आवाज़ ही निकलती। जिन लोगों को कभी चापा (nightmare) ने जकड़ा है, वे जानते हैं कि उस नीम बेहोशी और असहाय स्थिति में गला कैसी आवाज़ निकालता है। मुझे फिर लैवेंडर की खुशबू महसूस हो रही थी। प्रतिक्रिया में गले ने फिर गों-गों किया, जिस पर भंडारी ज़ोर से हंसा।

"लैवेंडर की महक से तू परेशान न हो जस्ट टेक अ डीप ब्रेथ ऐन लिसेन... हां तो मैं शर्ट में लगे लिपस्टिक के निशानों पर हाथ फेरते हुए घर आ गया। ड्राइवर ने सामान रखा और मेरे लिए भोजन लेने ऑफिसर्स मेस चला गया। मैंने शॉवर लिया और भोजन का इंतज़ार करने लगा।


"खाना सजा कर ड्राइवर चला गया। मैं डाइनिंग टेबल पर आ गया। मैंने रोटी और चिकेन का टुकड़ा तोड़ कर कौर मुंह में डाला ही था कि वही लैवेंडर की महक फिर नाक में समाने लगी। मैंने अंडे की भुर्जी चखी: लैवेंडर। पाइनएपल रायता: लैवेंडर। हड़ कर मैंने पानी पीकर देखा। उसमें भी वही। लैवेंडर।


"मेरी भूख खत्म हो गई। मैंने पूरा भोजन आसाम ट्रिब्यून पर उड़ेला और आवारा कुत्तों को खिलाने बाहर निकल गया। दो-तीन पुचकारों में चार कुत्ते आ गए। सड़क किनारे अखबार खोल कर खाना रखकर मैं वापस चल दिया। पीछे से कुत्तों के भौंकने की आवाज़ सुनाई दे रही थी। अचानक भौंकना रुक गया और कुत्ते रोने लगे। मैंने पलट कर देखा: कुत्ते दूर खड़े होकर भोजन की तरफ देख रहे थे और आसमान की तरफ़ मुंह उठा कर रो रहे थे।


"मैं तेज़ कदमों से चल कर सीधे बेड पर लेट गया। आंख बंद की तो गौहाटी से शिलॉन्ग का सफर और उस लड़की से मुलाक़ात का मंजर दिमाग़ में सिनेमा की रील की तरह चलने लगा। बारबार। लगातार। मैंने नींद की गोली निकाली और गटक ली।


"सुबह उठा तो सात बज़ चुके थे। शरीर में कुछ भारीपन था। पर आलस की गुंज़ाइश न थी। आठ बज़े ऑफिस पहुंचना था। फटाफट तैयार हुआ। कॉर्नफ़्लेक्स का नाश्ता किया। वर्दी पहनते-पहनते ड्राइवर जीप लेकर आ गया। बाहर सड़क पर आया। देखा अखबार में रखा खाना वैसा का वैसा पड़ा था।


"ऑफिस पंहुचते ही काम में डूब गया। थोड़ी देर में कर्नल सिद्धू ने मुझे बुलाकर कुछ ऐसा अर्जेंट काम पकड़ा दिया कि मुझे न लंच का होश रहा न शाम होने का।


"होश तब आया जब लैवेंडर फिर महकने लगा। मैंने घड़ी देखी। चार बज़ रहे थे। मैं कमरे से बाहर निकल आया। सूरज डूबने वाला था। मैं लॉन में टहलने लगा। सहसा मुझे फड़फड़-फड़फड़ जैसा कुछ सुनाई दिया और फिर कोई चीज़ एकदम-से मेरे बालों को सहलाते हुए गुज़र गई। मैंने ऊपर देखा। एक बड़ा-सा चमगादड़ पाइन ट्रीज़ के बीच इधर-उधर उड़ रहा था। देखते ही देखते वह एक पेड़ की डाल से चिपक कर उलटा लटक गया।


"मेरा टहलना जारी था। टहलते-टहलते एक बार मुझे लगा कि जैसे कोई पुकार रहा है। दिमाग़ के तर्कशील कोने से निर्देश मिला–इग्नोर कर दो। इग्नोर करने की नौबत नहीं आ पाई क्योंकि इस बार आवाज़ साफ थी,


हल्लो...


आवाज़ और उसके साथ लैवेंडर की खुशबू मेरे पीछे से आई थी। मैं मुड़ा। वही लड़की खड़ी थी। मुस्कुराते हुए। ब्लैक इवनिंग गाउन। कमर पर पतली-सी लाल बेल्ट। सर पर लाल बकेट हैट। पांवों में रेड स्टिलटोज़। और ओठों पर लिपस्टिक। सुर्ख, लाल।


आ यू सरप्राइज़्ड, मिस्टर भंडारी?–वह बोली। आवाज़ में शहद घुला था।


नो। आय फील आयम ब्लेस्ड, यंग लेडी...मीज़.. आय कुडंट कैच योर नेम यस्टडे...


"मेरा सारा खौफ खत्म हो गया था। वह मुझे अपनी ओर खींच रही थी। मेरे दिमाग़ में भूत, चुड़ैल या किसी किस्म की पैरा-नॉर्मल शै का नामोनिशान न था। मेरे भीतर इच्छाओं का ज्वार उठ रहा था। क्या काम-कामनाएं इतनी बलवती हो सकती हैं कि आदमी में डर ही खत्म हो जाए? मौत का डर भी खत्म हो जाए?


"हम दोनों बाहें फैलाकर आगे बढ़े और आलिंगनबद्ध होकर एक-दूसरे को पागलों की तरह चूमने लगे। कुछ देर बाद हम लोग लॉन में ढह गए। भावनाओं का अतिरेक अब सीमाओं को तोड़ने की ओर बढ़ रहा था कि मेरे अर्दली की आवाज़ ने रंग में भंग डाल दिया।


...साहब ड्राइवर नहीं है। उसकी बीवी बीमार हो गई है। वह उसे अस्पताल दिखाने गया है। सिद्धू साहब से पूछ कर वह जीप भी ले गया है...


"सांसों को संभालते हुए हम दोनों उठ खड़े हुए। सूरज डूबे देर हो गई थी। मेरे पास कोई वाहन भी न था। तुम कैसे आई थीं–मैंने उससे पूछा। वह बोली–पैदल..घर पास ही है, नोंग्रिम हिल में। यह बस्ती मेरे रास्ते में थी। मुझे लाईमुखड़ा जाना था।


"चलो मेरे साथ, मैंने कहा। वह मेरी बाहों में झूल गई और लरजते शरीर, थिरकते कदमों के साथ हंसते-बतियाते चल दी। उसका नाम एलिज़ाबेथ लिन बरुआ था। एलिज़ाबेथ ईसाई नाम। लिन यानी उसकी खासी ट्राइब की उपजाति और बरुआ यानी पति का सरनेम। पति असमिया ब्राह्मण था वह फ़ौज़ी अफसर था। किसी जंग में मर गया था।


"लोअर नोंग्रिम हिल का मोड़ आते ही वह मुझसे छिटक कर दूर खड़ी हो गई। बोली–बस, आगे मैं चली जाऊंगी। मैंने बहुत ज़िद की–एक कप कॉफ़ी ही पिला देना। वह न मानी और अकेले चली गई। कुछ ही क़दम जाकर वह घर के लिए मुड़ गई।


"अब वह कब मिलेगी–यह सवाल उसी पल से मुझे मथने लगा और अगले दिन काम पर से लौटते हुए भी मैं यही सोच रहा था कि उसके घर जाऊं या नहीं। जैसे ही लोअर नोंग्रिम हिल का मोड़ आया, मैं गाड़ी रुकवा कर उतर गया। और लो! वह मेरे सामने खड़ी थी!! बोली–चलें? उसने हाथ बढ़ाया। मैंने पकड़ लिया। दूसरे हाथ से ड्राइवर को लौट जाने का इशारा किया और कंधे पर हाथ धर कर बोला–चलो।


"आज हैपी वैली चलते हैं। आधे घंटे की चढ़ाई के बाद हम हैपी वैली में थे। बड़ी-बड़ी चट्टानों वाली इस खूबसूरत जगह हम घंटों प्रेमालाप करते रहे। पर एक सीमा तक। नो–वह साफ-साफ बोली और मेरे चेहरे पर उतर आए गुस्से और फ्रस्ट्रेशन को अपने किस से दूर करते हुए मेरा हाथ पकड़ कर वापस चल दी।


"हैपी वैली के बाद उसने मुझे अगले दिन शिलॉन्ग पीक पर बुलाया। शिलॉन्ग पीक शहर से 15 किमी दूर है। मैंने साथ चलने का ऑफर किया। वह बोली, अपनी चिंता करो। मैं लोकल हूं। आ जाऊंगी। ठीक नौ बज़े।


"अगले दिन जब रात नौ बज़े मैं शिलॉन्ग पीक पहुंचा, वह वहां पहले से बैठी मिली। उसकी खूबसूरती ग़ज़ब ढा रही थी। उसने पेल येलो ड्रेस पहन रखी थी। सी-थ्रू शियर ड्रेस। हम 11बज़े तक चूमते-लिपटते रहे। इस रात भी उसने सीमा न तोड़ने दी।


"रात बहुत हो गई है। वह बोली, अब तुम जाओ। और तुम? वह बोली, मैं अकेले आऊंगी। जीप में डर लगता है। पर कैसे आओगी, मैंने ज़िद की? वह बोली, ज़िद न करो माय बेबी। मैंने फिर भी ज़िद की तो वह मुस्कराईं और बोली, उठ जाओ,ध्यान से देखो...


"वह खुद भी दोनों बाहें फैला कर खड़ी हो गई। अगले पल वह पहाड़ की चोटी से कूद गई। पहले नीचे की ओर गई फिर ग्लाइड करते हुए ऊपर आई और मेरे पास आकर चक्कर काटते हुए वह शिलॉन्ग शहर के ऊपर तैरते हुए गुम हो गई।


"ढाई हजार मीटर के अल्टीट्यूड में रात की ठंड के बावजूद मेरा पूरा शरीर पसीने से भीग गया। मेरे पैरों की ताक़त खत्म हो चुकी थी। पूरा शरीर कांप रहा था। बड़ी मुश्किल से मैंने जीप स्टार्ट की। घर पहुंच कर सुबह गौहाटी के लिए रवाना हो गया। सुनील गौहाटी स्टेशन पर मैंने सोचा कि कहां जाऊं तो मुझे तेरी ही याद आई। लगा कि तू ही मुझे इस आफत से बचा पाएगा।


"मैं पटना की टिकट लेकर ट्रेन में बैठ गया। ट्रेन के खुलते ही देखता हूं कि एलिज़ाबेथ सामने की सीट पर बैठी है। मेरी ओर देख कर मुस्कराईं। बोली–मत जाओ..तुम मेरे हो...हमेशा के लिए.. हमेशा से। चलो, वापस चलो मेरे साथ...यह आत्मा...यह शरीर...सब कुछ तुम्हारा है। शिलॉन्ग में नहीं रहना तो यहीं गौहाटी में रह जाओ। बस ब्रह्मपुत्र मत पार करो...


"क्यों, ब्रह्मपुत्र क्यों न पार करूँ? मैंने पूछा।


वह बोली, क्योंकि हम खासी लोग ब्रह्मपुत्र पार नहीं करते।


"तभी मुझे खिड़की के बाहर नीचे विशाल जलराशि दिखाई दी। ट्रेन ब्रह्मपुत्र के पुल से गुज़र रही थी। एलिज़ाबेथ चीखी–डोन लीव मी माय लव...डोन-डोन डोन्ट। इतना कहकर वह भागकर ट्रेन से कूद गई और ब्रह्मपुत्र के ऊपर से उड़ते हुए गुम हो गई।


"ट्रेन पटना की ओर बढ़ चली। मुझे तेज़ बुखार चढ़ गया था। सुनील उसी हालत में मैं तेरे पास पहुंचा था। तूने मेरी बड़ी सेवा की। मुझे लगा कि ट्रांसफर कराके एलिज़ाबेथ से बच जाऊंगा। लेकिन, पटना पहुंचकर मुझे लगा कि मैं उसके बिना जी नहीं पाऊंगा। और, मैं पटना, तुम्हारे घर से भाग आया। सॉरी सुनील।


(शिलॉन्ग पीक पर दोबारा..आख़िर हो ही गया 'मिलन': पढ़ें कल)

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