दिमाग़ ने कहा बाएं मुड़ और अमरीक मानो टेक-ऑफ कर गया

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कानपुर, 1984 : भगवान, ऐसा दिन कभी किसी को न दिखाना

  • अजय शुक्ल

अजय शुक्ल।
एलपी इंटर कालेज में पढ़े अमरीक को वहां के सारे रास्ते मालूम थे। वह कॉलेज गेट से दाहिनी ओर मुड़कर रीगल के पिछवाड़े से होते हुए गल्ला गोदाम के पास रेल की पटरी को जा सकता था। या, फिर वह एबी विद्यालय की तरफ जा कर कैनाल रोड निकल सकता था।

न..न…न...! दिमाग़ ने रोका। एड्रेनलिन रश के कारण दिमाग़ शकुंतला देवी की तरह कैलकुलेट कर रहा था और टांगों में मिल्खा सिंह की तरह भाग रही थीं। हत्यारों की सांसें वह अपनी गर्दन पर महसूस कर रहा था।

न..न…न...! कॉलेज गेट 200 मीटर दूर है...,दिमाग़ ने कहा बाएं मुड़ और अमरीक मानो टेक-ऑफ कर गया। वह एबी विद्यालय से कैनाल रोड की ओर भागा। भागते भागते उसके जब वह सड़क से 50 मीटर दूर रह गया तो उसे एकदम रुक जाना पड़ा: सामने हत्यारों का दूसरा जत्था टहल रहा था!! दिमाग़ इमरजेंसी मोड में आ गया। आंखों ने चौथाई सेकेंड में दाएं-बाएं का नज़ारा लिया और पलक झपकते ही अमरीक वहां रखे कूड़े के डिब्बे में कूद गया। हत्यारे कूड़े के डिब्बे के बगल से भागते हुए कैनाल रोड पहुंच गए, जहां नए जत्थे से मिलकर वे नए शिकार तलाशने में जुट गए। अमरीक उनके दिमाग़ से हट चुका था।

अमरीक की जान बच गई थी। एड्रिनल ग्लैंड सुस्त हो चुकी थी। धड़कन और सांसें सामान्य हो रही थीं। उसने गर्दन का पसीना पोछा। पसीना गाढ़ा था। उसने हथेली देखी, उस पर खून लगा हुआ था। उसे अब दर्द का अहसास होने लगा था। वह शरीर की टूटफूट का मुआयना करने लगा। माथे पर घाव, पसलियों में इतना दर्द की चौथाई से ज़्यादा सांस खींचना मुश्किल। स्क्रोटम पर भी बहुत लातें पड़ी थीं। वहां का दर्द सिर्फ मर्द ही जानता है।

मौत के मुंह से निकलने के बाद अब उसे प्यास भी लग रही थी। पानी की तलब के साथ ही उसे अपने घर की याद आ गई...नन्ही बिटिया अमृतबानी, सुरजीत उसकी ज़नानी, माता-पिता और छोटा भाई...सब कितना परेशान होंगे। पर उसकी अपनी इतनी गम्भीर थी और मौत का भय इस क़दर तारी था परिवार पर कंसन्ट्रेट न कर सका। वह होश खोने लगा....।

आंख खुली तो अंधेरा हो चुका था। हवा में नवम्बर वाली खुनक थी। अमरीक को तरावट अच्छी लगी। वह हिम्मत कर कूड़े के डिब्बे से बाहर निकला और सशंकित कदमों से कैनाल रोड तक आ गया। सड़क सूनी थी। ट्रैफिक नदारद। कानपुर का सर्वव्यापी रिक्शा भी दूर-दूर तक नहीं। वह सोचने लगा...घंटाघर से चावला मार्केट के लिए टेम्पो तो मिल ही जाएगा! वह मॉल रोड की तरफ बढ़ चला। पर चाइनीज़ रेस्टोरेंट चुंग फ़ा से आगे रास्ता नहीं था। मॉल रोड पर लिंचरों का हुजूम मौजूद था।

अमरीक दो कदम पीछे की ओर चला और खड़ा हो गया। अब वह नहीं जानता था कि क्या करे। इधर-उधर देखने लगा। सहसा उसकी निगाह एक दरवाज़े पर पड़ी, जो शायद उसी के लिए खोल कर रखा गया था। दरवाज़े के बाहर नेमप्लेट लगी थी: चंदर मल्होत्रा। दरवाज़े के साथ ही सीढियां लगीं थीं, जो ऊपर की रिहाइश की तरफ जा रही थीं।

अमरीक बिना सोच-विचार के भीतर घुस गया। दरवाज़ा बन्द किया और सीढियां चढ़ने लगा। तभी भक्क से रोशनी हो गई। अमरीक ने देखा ऊपर एक युवती खड़ी है। "कौन हैं आप...वहीं रुक जाइए..." युवती ने कहा और हाथ के इशारे से रोकते हुए घर के भीतर मुंह कर के चिल्लाई, "चंदर, ज़रा आना तो देखो ये कौन हैं।"

वह रुक गया। युवती की आवाज़ मीठी थी। वह तू-तड़ाक की भाषा नहीं बोल रही थी। अमरीक का ढाढस बंधने लगा।

"क्या है..." यह कहते हुए 40-42 साल का एक आदमी सीढ़ियां उतर कर अमरीक के पास आ गया। उससे पूरी बात पूछी। "चलिए, ऊपर चलिए। फिर देखते हैं क्या करना है।" उसने अमरीक को अपनी बाहों का सहारा दे दिया।

"बैठिए" आदमी ने सोफे की ओर इशारा किया और पानी लाने चला गया। कमरे के दूसरे कोने पर वही युवती किसी से फ़ोन पर बात कर रही थी। अमरीक उसे एकटक देखने लगा। इस बीच वह आदमी पानी, चाय, बिस्किट ले आया। "लीजिए" उसने अमरीक से कहा। लेकिन वह यवती को ही देखता रहा। "नाश्ता कीजिए" आदमी ने इस बार तनिक रुखाई से कहा। अमरीक एक सांस में पानी पी गया और युवती से बोला, "मैं एक फ़ोन कर लूं। अपने घर। सब चिंता कर रहे होंगे"

"बिलकुल" युवती फोन कर चुकी थी। उसने तार खींच कर रिसीवर दे दिया। अमरीक ने नम्बर डायल किया और बोलने लगा:


"हल्लो, अमरीक बोल रहा हूं। ठीक हूं। परेशान न होना। अभी घंटाघर से टेम्पो पकड़ के आता हूं... पर तू रुक क्यों जाती है...''


"................."


"हमला करने आ रहे हैं...क्यों..तू रुक क्यों जाती है..क्या इंदिरा गांधी का क़त्ल हुआ है.."


"....................."


"बस पांच लोग हैं भीड़ में....ऐसा कर पहलवान को बुला ले जनार्दन पहलवान को भगत है अपना.."


"...................."


"क्या? मशाल लेकर सबसे आगे वही है–जनार्दन! तू, एक काम कर। तू दरवाजे पर बेड, सोफा, फ्रिज और जितनी भारी चीजें हैं–सब वहां लगा दे। मैं बेदी साहब को फोन लगाता हूं। और हां, तू और मां अपनी कृपाण हाथ में ले ले। अलमारी में दो लम्बी कृपाण हैं। एक छोटे को दे दे और एक पापा को।"



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"कक्क्क्क क्या, रोशनदान से पेट्रोल और मिट्टी का तेल डालकर आग लगा दी..धुआं बहुत है...दरवाज़ा खोलकर बाहर निकलो और जब तक सांस है चलाओ कृपाण..."

वर्ष 1984 के हालात की फाइल फोटो 

अमरीक के हाथ से फ़ोन छूट गया। वह बेहोश हो चुका था। युवती ने रिसीवर कान में लगाया। कुछ देर तक वस्तुओं के आग में जलने की आवाज़ें आती रहीं। फिर फोन डिस्कनेक्ट हो गया।


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