ब्रह्मपुत्र के पार, बादलों के बीच में : तीन
- अजय शुक्ल
अजय शुक्ल। |
"नो, थैंक यू सिद्धू साहब। मेरा कमरा बुक है। होटल पाइनवुड, पोलीस बाज़ार..कल मिलता हूं न आपसे..ओके?"
"जैसा उचित समझें" कर्नल बोले, "पर पोलीस बाज़ार दूर है। मेरी जीप से चले जाइए।"
थोड़ी देर में दो जीपें आ गईं। एक जीप मुझे बिठा कर शिलॉन्ग की ऊंची लहरों की तरह उठती-गिरती सड़कों पर दौड़ चली। गोरा लेन, लोअर नोंग्रिम हिल, लाईमुखड़ा और डॉन बॉस्को होते हुए जीप किस क्षण होटल पाइनवुड आ गई मैं जान ही न पाया। मैं आंखें बंद कर अपने दोस्त नाहर भंडारी की चिंता में डूबा था। ऐसा लग रहा था कि वह या तो पागल होकर किसी शहर में बच्चों के पत्थर खा रहा है और या फिर....। उसके मरने की बात सोचना भी गवारा न था मेरे मन को।
नाहर यानी हम लोगों का नैरी। नवीं, दसवीं ग्यारहवीं और बारहवीं की पढ़ाई हम दोनों ने एक साथ की थी। दानापुर कैंट के केंद्रीय विद्यालय में। उसके पिता भी फ़ौज़ी अफसर थे और तीन साल दानापुर तैनात रहे थे। जब हम लोग 12वीं क्लास में थे तब उनका तबादला हो गया था और नाहर उसके बाद एक साल तक मेरे घर पर रहकर पढ़ा था। वह फुटबॉल का बढ़िया खिलाड़ी था। लड़कियों में बहुत लोकप्रिय था। 12वीं क्लास में उसे भी एक लड़की से इश्क हो गया था। रूथ सेसिल। यही था उसका नाम। उससे मिलने के लिए वह संडे मास में भाग लेने लगा था। सेंट ल्यूक चर्च स्कूल के पीछे गंगा नदी के पास था।
नाहर की यादों की चेन तब टूटी जब फ़ौज़ी ड्राइवर को मुझे ज़ोर से हिलाकर चौथी बार कहना पड़ा कि होटल आ गया है। मैं हड़बड़ा कर उतरा और थैंक यू बोलकर होटल के भीतर चला गया और रिसेप्शन के आगे खड़ा हो गया। "टू ओ थ्री" नाम बताते ही रिसेप्शनिस्ट ने कमरे का नम्बर बताया और एक लड़का मेरी अटैची लेकर सीढ़ी चढ़ने लगा।
बड़ा खूबसूरत था 203 नम्बर कमरा। सबसे अच्छी बात उसकी खिड़की थी। बहुत बड़ी। खोलने पर नीचे घाटी का दिलकश नज़ारा। खिड़की खोलते ही पाइन की खुशबू से महकती हवा कमरे में भर गई। सूरज बिलकुल अभी-अभी डूबा था लेकिन आफ्टर-ग्लो ने वैली में कुछ लम्हों के लिए उजास भर दिया था। मैंने खिड़की के बराबर कुर्सी डाल ली और सर्विस बेल दबा दी। "येस सर" बेयरा तुरन्त हाज़िर हो गया।
"गेट मी शीवस रीगल, बॉटल–फुल।"
"सैलड ऑर सम अपेटाइज़र....।"
"नो, जस्ट द स्कॉच एंड सम सोडा..नॉउ हरीअप।"
मैं दारू का इंतजार करने लगा और आंखें बाहर के नज़ारे जज़्ब करने लगीं। खिड़की के नीचे घाटी में बादलों के टुकड़े तैर रहे थे। दो टुकड़े ऊपर को चढ़ रहे थे। तभी पाइन की खुशबू के बीच मुझे फिर मुझे लैवेंडर की महक का अहसास हुआ। मुझे पहली बार डर महसूस हुआ। यह वही नशीली महक थी जो दोपहर में कर्नल के कमरे में रखी कुर्सी से आ रही थी।
"सर, योर ड्रिंक" बेयरा बोतल और ग्लास ले आया था। उसने मेरे पास खिड़की के बराबर मेज रखकर सब चीजें रख दीं। वह मेरे लिए पेग बनाने जा रहा था।
"नो, थैंक यू" मैंने उसे लौटा दिया।
उसके जाते ही मैंने लाइट ऑफ कर दी और दो पटियाला बनाकर गटक लिए। तीसरा भी मैने फटाफट बनाया और उसे हाथ में लेकर मैं फिर बादलों का खेल देखने लगा। बादलों के वो दो टुकड़े जो ऊपर को चढ़ रहे थे अब मिलकर एक हो गए थे।
सहसा इस बादल ने आदमी जैसा रूप अख्तियार कर लिया। मुझे लगा कि वह आदमी मुझे घूर रहा है। शायद दो पटियाला असर कर रहे थे। शायद मुझे वह चीज़ें दिख रही थीं जो वहां थी ही नहीं। शायद मैं डर रहा था। अब मुझे लैवेंडर की महक के साथ उसके फूलों का हल्का बैंगनी रंग भी महसूस हो रहा था।" दिस इज़ नॉनसेंस" मैंने खुद से कहा और तीसरा पेग भी एक झटके में गड़प कर गया।
मैं वापस खिड़की के बाहर झांकने लगा। मैं शायद लैवेंडर की खुशबू से बच कर भाग रहा था। इधर बादल अपनी मस्ती में थे। खिड़की की तरफ आ रहे टुकड़े ने अब एक बच्चे का रूप ले लिया था। अचानक यह बच्चा फुटबॉल खेलता नज़र आ रहा था। ...येल्लो अब यह बच्चा साइकिल किक लगाते दिख रहा है। लगा कि साइकिल किक लगाने वाला नाहर ही है।
मैंने थोड़ी दारू इस बीच और गटक ली। डर मुझे दारू पिलवा रहा था और दारू मुझे डरा रही थी। मैं पीता जा रहा था और बादल का वह टुकड़ा तरह-तरह के रूप धर के खिड़की की तरफ भागा आ रहा था।
मैं दिमाग़ पर कंट्रोल खोता जा रहा था। उसने सामने तैरते बादल को शत्रु मान लिया था। और, अब मैं सड़कछाप लोफर की तरह खिड़की पर खड़े होकर गाली बक रहा था।
"आजा स्साले भूत तेरी मा x xx। निपट ले तू आज। तू भूत है तो मैं जीता-जागता इन्सान... पटक के न मारा तो मुच्छ मुड़ा दूंगा।"
लेकिन गाली गलौज का बादल पर कोई असर न पड़ा। वह आगे बढ़ता आया। अन्ततः वह खिड़की पर था और उसने मेरे दोस्त नाहर का चेहरा लगा रखा था। देखते ही देखते बादल और नाहर का चेहरा कुहासे में तब्दील हो गया। कमरा बर्फ की मानिंद ठंडा हो गया था।
(गुवाहाटी से शिलॉन्ग के बीच कार में चलता रहा प्रेमालाप: पढ़ें कल)
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