ब्रह्मपुत्र के पार, बादलों के बीच में : सात
- अजय शुक्ल
अजय शुक्ल। |
लेकिन टॉयलेट सीट पर बैठे-बैठे दिमाग़ में 'भंडारी के भूत' की बातें घुमड़ती रहीं। सहसा दिमाग़ में एलिज़ाबेथ के घर का पता टपक पड़ा। लोअर नोंग्रिम हिल। नाम एलिज़ाबेथ लिन बरुआ। ये कैसे? हेल्युसिनेशन में नाम और पते कहां से आ गए। दिमाग़ सोच नहीं पा रहा था। थोड़ी देर बाद यह लॉजिक उभरा कि जो दिमाग हेल्युसिनेशन क्रिएट कर सकता है तो वह नाम पते भी क्रिएट कर सकता है। लेकिन मैं तो शिलॉन्ग पहली बार गया था। मुहल्लों के नाम जानता ही न था!
इसी तर्क-वितर्क के बीच मैंने एक फैसला कर डाला: आज कर्नल सिद्धू से मुलाक़ात कैंसिल। मैं तैयार होकर बाहर निकला और एलिज़ाबेथ के घर की तरफ चल दिया। "लोअर नोंग्रिम हिल" मैंने टैक्सी वाले से कहा।
पन्द्रह मिनट में टैक्सी वहां पहुंच गई। "वेअर डु आय ड्रॉप यू, सर" ड्राइवर ने टैक्सी रोकते हुए कहा।
"कहां है नोंग्रिम हिल" मैं बाहर निकल कर जायज़ा लेने लगा। ड्राइवर ने इशारे से मुझे लोअर नोंग्रिम हिल की बस्ती दिखाई। तीखी चढ़ाई। एक तरफ जंगली घाटी और दूसरी तरफ ऊंचे पहाड़ पर घर बने थे। बमुश्किल 10 या 12 घर। लेकिन सभी घरों तक जाने का जरिया सीढ़ियां।दस-बीस नहीं, सौ-सौ और डेढ़-डेढ़ सौ सीढ़ियां।
मैंने टैक्सी लौटा दी और चल पड़ा एलिज़ाबेथ को ढूंढ़ने। मैं सौ-डेढ़ सौ सीढ़ी चढ़ता। दरवाज़े पर नॉक करता और निराश होकर उतनी ही सीढ़ियां उतरता। मैं बुरी तरह थक चुका था और अब मुझे अपने तर्क पर पक्का यक़ीन हो गया था कि ये नाम और पता मेरे अपने दिमाग़ ने क्रिएट किए थे। तो मेरा दिमाग़ मुझी को चूतिया बना रहा था! मैं हंसा और आगे चल दिया।
अब बस दो घर बाकी थे। मैं सीढ़ियां चढ़ने लगा। सामान्य खासी घर था। बांस के टट्टर के दोनों ओर मिट्टी लीप कर कमर की ऊंचाई की दीवार। दीवार के ऊपर शीशा लगी विशाल खिड़की और खिड़की के ऊपर पिरामिड की तरह रखी टीन। एक अकेला लड़का घर के आगे छोटे से लॉन में फुटबॉल खेल रहा था।
"येस...?!" मुझे देखकर उसने खेल रोक दिया और सवालिया नज़रों से मुझे देखने लगा।
"एलिज़ाबेथ... डज़ शी..."
"नो एलिज़ाबेथ। नो विक्टोरिया।"
इतना कहकर उसने मुंह फेर लिया और फिर से फुटबॉल में मशगूल हो गया। तभी मेरी निगाह दरवाज़े पर लगी एक जीर्णशीर्ण नेमप्लेट पर पड़ी और मेरी धुकधुकी बढ़ गई। लकड़ी की तख्ती पर फ़ीके पड़ चुके पेण्ट से लिखा था:
टॉम लिन
मेरी लिन
एलिज़ाबेथ का जनजातीय सरनेम भी लिन था!!
"घर से किसी बड़े को बुला लाओ, बेटा" मैंने लड़के को खेलने से रोकते हुए कहा।
लड़का पांव पटकता हुआ भीतर चला गया।
थोड़ी देर बाद लड़का लौटा। "अंदर मेरी ग्रैनी हैं। आपको बुला रही हैं। आप भीतर जाइए।" बालक फिर फुटबॉल में लग गया। मैं भीतर चला गया। अंदर एक वृद्धा आराम कुर्सी पर अधलेटी थीं। "गुड आफ्टरनून, कॉन्ग" मैंने वृद्धा को खासी सम्बोधन के साथ प्रणाम किया। जवाब में वे हाथ जोड़कर कुर्सी से उठ खड़ी हुईं। उन्होंने एक छड़ी उठा ली और डगमगाते कदमों से सोफे की ओर बढ़ते हुए मुझे भी सोफे का इशारा किया, ''यहां आओ''।
"वॉट कन आय डू फ़ यू" वे बोलीं।
"कॉन्ग, मैं एलिज़ाबेथ से मिलने आया हूं"
"ओ गॉड, माय लार्ड...जीज़ज़!!" इतना कहकर वे मुझे अपनी नज़रों से ड्रिल करने लगीं। "एलिज़ाबेथ..हाउ डु यू नो हर?"
मैंने उनको नाहर भंडारी के बारे में बताया कि दोनों डेट कर रहे थे। फिर उसे अपने बारे में बताया। वह कुछ भी समझ नहीं पा रही थी,"मैंने तो भंडारी का कभी नाम ही नहीं सुना। अगर लिज़ उसको डेट करती तो मुझे ज़रूर बताती।"
"कॉन्ग, हो सकता है आप सही हों। मैं तो सुनी-सुनाई बात बता रहा हूं।"
" बाय द वे, तुम्हारे दोस्त भंडारी की एज कितनी है?"
"यही 26 या 27...बस मेरे जितनी।"
मेरे जवाब पर वृद्धा मुस्कराने लगीं। "बताओ मैं कौन हूं?" उन्होंने मुझसे पूछा।
"बाहर नेमप्लेट पर आपका नाम लिखा था मेरी...मेरी लिन।"
"यू आ राइट। आयम मेरी। ऐन लिज़ वज़ माय सिस्टर। माय एल्डर सिस।"
मैं भौंचक्का। दिमाग़ सुन्न। मैं मूर्खों की तरह बुढ़िया को ताक रहा था। "पता नहीं तुम्हें क्या कनफ्यूज़न है" वृद्धा ने कहा, "लिज़ डाइड वे बैक... इन 1944...कमिटेड स्यूसाइड।"
मैं सिर्फ सुन सकता था। क्या बताता?...कि बीती रात लिज़ और भंडारी मुझे अपनी कथा सुनाने आए थे?
वृद्धा बोले जा रही थीं, "...लिज़ बहुत सुंदर थी। मुझसे भी ज़्यादा। जब हम दोनों सन्डे को मास के लिए कथीड्रल, डॉन बॉस्को जाते तो बीसियों लड़के इंतज़ार करते मिलते थे। पर उसे कोई खसिया अच्छा नहीं लगा। उसे अच्छा लगा एक असमीज़ ब्राह्मण–भृगु कुमार बरुआ। आर्मी में लेफ्टीनेंट था। हम बिरादरी के बाहर शादी नहीं चाहते थे। लेकिन वे दोनों न माने और यहीं शिलॉन्ग में ईसाई रीति से एक चर्च में शादी हो गई। साल था 1944। तारीख थी एक जुलाई।"
इतना कहकर वृद्धा रुक गईं। स्टेला-स्टेला.. उन्होंने दो बार पुकारा। एक लड़की आई तो उसे नाश्ता लाने का हुक्म देकर वे खुद एक अलमारी से बड़ा सा फोटो अल्बम ले आईं। तब तक स्टेला एक ट्रे में चाय, बिस्किट ले आई।
"हां तो मैं कह रही थी कि एक तारीख को शादी हुई" वे चाय का सिप लेते हुए बोलीं, "और, 6-7 जुलाई को आईएनए मणिपुर में घुस आई। भृगु को इम्फाल पहुंचने का हुक्म हुआ। उसे तुरन्त रवाना हुआ पड़ा...ओ गॉड...शायद दोनों की शादी कंज़्यूमेट भी नहीं हो पाई थी। फिर भृगु नहीं उसकी डेड बॉडी ही आई। 12 जुलाई को बॉडी आई। शाम को गौहाटी में क्रेमेशन और रात में लिज़ ने शिलॉन्ग पीक की क्लिफ से छलांग लगा दी..ओ जीज़ज़..लिज़ी माय डार्लिंग पुअर सोल, प्लीज़ प्रे फर हर.. ओ गॉड मिटीगेट हर सफरिंग्स। लोग कहते हैं कि उसकी आत्मा पीक के आसपास अब भी भटकती रहती है।"
इतना कहकर वृद्धा ने पुराना अलबम खोल लिया। "आओ, मेरे पास आओ" वे मुझसे बोलीं, "ज़रा देखना कि मैं और लिज़ कितने सुंदर थे।"
पहला ग्रुप फ़ोटो था। शादी का–चर्च के अंदर का लॉन्ग शॉट, धुंधला-सा। बीच में भृगु और उसके दोनों ओर मेरी व एलिज़ाबेथ। इसके बाद पोस्टकार्ड साइज क्लोज़अप्स। दोनों बहनें जवानी में बहुत खूबसूरत थीं। तीसरा फोटो भृगु का। देखते ही लगा कि मैं गश खाकर गिर जाऊंगा। भृगु का चेहरा हूबहू भंडारी जैसा! वही आंखे, वही बड़े-बड़े कान। पतली-पतली मूछें। और तो और बाएं गाल के नीचे एक बड़ा सा मस्सा।
वृद्धा मुझे देख रही थी। वह मेरे चेहरे पर आते-जाते भावों को समझने की कोशिश कर रही थी। मुझे शायद अब पूरी बात समझ में आ गई थी। मैंने ज़ेब से नाहर की फ़ोटो निकाली और वृद्धा को थमा दी।
"यह नाहर है, कॉन्ग, मेरा दोस्त"
अब भौंचक्का होने की बारी उसकी थी, "नो, दिस इज़ भृगु" वह चीख रही थी।
मैंने वृद्धा के कंधे पर हाथ रखा। वह मुझे देखने लगी। मैंने कहा, "कॉन्ग...एक अच्छी खबर है।"
"क्या?"
"अब तुम्हारी बहन की आत्मा शिलॉन्ग पीक पर नहीं भटकेगी।"
"क्यों?"
"क्योंकि, पिछले दिनों लिज़ और भृगु का मिलन हो गया... मैरिज का कंज़्यूमेशन हो गया। क्योंकि भृगु और नाहर एक थे। लिज़ ने अपने भृगु के दोबारा पैदा होने के लिए 1944 से 1979 तक का 35 साल लम्बा इंतज़ार किया।"
शाम ढल चुकी थी। मैं वापस सीढियां उतरने लगा। सड़क पर आकर मैंने ऊपर एक बार फिर उस घर को देखकर वेव किया। बाय-बाय लिज़, बाय-बाय भृगु, बाय-बाय भंडारी। लैवेंडर एक बार फिर महकने लगा। मैं मुस्करा कर आगे बढ़ गया। महक पीछे छूट गई।
(समाप्त)
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