...और खूब लूटा गया, रामनाम बेचारा !

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अजय शुक्ल।
रामनाम। खूब लूटा गया है, बेचारा। कबीर ने तो न सिर्फ लूटा, वरन् 'लूट सकै तो लूट' जैसी अपील भी कर दी। उनके जूनियर तुलसी ने उसे हुसड़ के लूटा और रॉबिनहुड की तरह बांटा। बाद के किस्से आप को पता ही हैं। हां, मुझे लूटने की ज़रूरत नहीं पड़ी, क्योंकि अपने शैशव में मैंने मां के दूध के साथ राम का नाम छक कर पिया था। उनकी लोरी थी :

राम नाम लड्डू, गोपाल नाम घी,

हरी नाम मिसरी तू घोल-घोल पी।

पर, आज मेरा मन डोल गया। एक साथी ने अयोध्या जी से फ़ोन किया। शैतान की तरह उकसाया। बोला, पांच तारीख के बाद रामनाम की लूट पर रोक लगने जा रही है। लूट ले। मत भूल आज हर लुटेरा मालामाल है। आदम का बच्चा, मैं टूट गया। मैंने रामनाम को कहानी के बेसन में लपेट कर तल दिया। तो पेश है: रामनामी पकौड़ा करौने की चटनी खुद बना लीजिएगा।                                                  - अजय शुक्ल



रात है। जी, काली। क्योंकि रात या तो काली होती है या रंगीन। हां तो ये वाली काली है: आधी रात, मिड दिसम्बर वाला कटकटउआ जाड़ा। एक नौजवान मुम्बई जा रहा है–वहां अभी 'सेफ' है। धमाके यानी कुख्यात मुम्बई ब्लास्ट्स में अभी तीन महीने बाकी हैं। फिलहाल यह जगह, यानी कानपुर खतरनाक है। दो सौ के ऊपर लाशें गिर चुकी हैं। अभी 12 तारीख को ही दामोदर नगर में दस लोग जलाए जा चुके हैं।

शहर में सन्नाटा है–मरघटी, जिसे बीच-बीच में उठता जय श्रीराम का घोष और नारा-ए-तकबीर डिस्टर्ब कर रहा है। कुत्ते रो रहे हैं और एक कार कानपुर सेंट्रल की तरफ दौड़ी जा रही है। शहर कर्फ्यू में है। मूलगंज चौराहे पर पैरामिल्ट्री की नाकेबंदी है। कार रोकी जाती है। कार के शीशे पर कर्फ्यू पास चिपका है। कार आगे बढ़ जाती है। कार में सवार युवक ठहाका मारते हैं। नाकाबंदी पार करने की क़ामयाबी का ज़बानी जश्न ...माxxxद, यह पास बड़ा काम आया। पास अभी कुछ ही देर पहले जुगाड़ से हासिल किया गया था।

सेंट्रल स्टेशन आ गया है। कार को सिटी साइड में खड़ा कर दो युवक अंदर पांच नम्बर प्लेटफॉर्म को बढ़ चलते हैं। शहर का सन्नाटा और कर्फ्यू प्लेटफॉर्म पर भी उतर आया है। न चायवाला, न कोई कुली और न काले कोट वाले टीसी। "चलो, देवतादीन के बुक-स्टॉल से कुछ खरीदते हैं'' एक युवक दूसरे का हाथ पकड़ कर खींचता है। मगर, प्लेटफॉर्म के छोर पर स्थित किताबों की दुकान भी बन्द है।

...योर अटेन्शन प्लीज़..

अचानक स्टेशन का पब्लिक एड्रेस सिस्टम पर घोषणा होती है...लखनऊ से लोकमान्य तिलक टर्मिनस जाने वाली पुष्पक एक्सप्रेस एक घण्टा देरी से चल रही है...

"बीनू, तू घर जा..इतनी ठंड में तूने कपड़े भी लपड़झुन्ना पहन रखे हैं" मुंबई जा रहा कहता है।

"अबे यार" दूसरा कहता है, "साला इत्ता भी जाड़ा नहीं है... चल टहलते हैं...बदन में गरमी आ जाएगी।"

दोनों टहल रहे हैं। एक ने पठान सूट और नगरा जूते पहन रखे हैं। थोड़ी-थोड़ी देर में यह सरगम पान मसाले की पुड़िया फांक रहा है और पटरियों पर लगातार पीक मार रहा है। दूसरा युवक सूट-बूट में है। एक हाथ में अफसरों वाला रूल और दूसरे हाथ की उंगलियों में सिगरेट। विल्स फिल्टर, नेवी कट।

प्लेटफॉर्म के पश्चिमी छोर पर एक बेन्च के पास ये दोस्त अचानक रुक जाते हैं। दोनों के चेहरे ख़ौफ़ज़दा हैं। सुनिए दोनों की खुसफुस :

"अबे कट ले xxx के.."


''क्या है?''


"चश्मा लगा के देख...बेन्च पर भैंचो लाश पड़ी है.."


"अमाँ कोई कम्बल ओढ़े सो रहा है...तू अखबार ज़्यादा पढ़ता है इसीलिए लाशें देखा करता है।"


"नहीं, ध्यान से देख...कोई मूवमेंट दिख रहा है? द बम इज़ ऐज़ डेड ऐज़ अ डोडो।"


"ज़्यादा अंग्रेजी न पेल और चल यहां से, क्यों पड़ी लकड़ी..."


"ज़रा रुक, मैं चेक करता हूं" इतना कह कर यह युवक ज़ोर-ज़ोर से पैर पटकता है, हल्ला मचाता है और साथी का रूल लेकर बेन्च को खटखटाता है। मगर कम्बल के भीतर से कोई स्पंदन नहीं।


"अब बोल, है न लाश। चल इसको राम का नाम सुना देते हैं.."


"और मुल्ला हुआ तो?"


"तो कलमा सुना देंगे।"


दोस्तों की बातचीत के बीच ही एक क्षीण सी आवाज़ आ रही है। वे कान लगा देते हैं। शब्द सूट-बूट वाले की पकड़ में आते हैं: आवाज़ जय श्रीराम कह रही है।


जवाब में युवकों ने जोरदार नारा लगाते हैं: जय श्रीराम।

प्लेटफॉर्म रामनाम से गूंज रहा है। इसी के साथ बेन्च पर पड़ा कम्बल उठ खड़ा होता है और सूट-बूटधारी के गले से लिपट जाता है। कम्बल के अंदर एक ख़ाकी वर्दी वाला अधेड़ है। भरत-मिलाप के बाद सब बेंच पर बैठ जाते हैं। सूट-बूट वाला सिगरेट सुलगा लेता है। दूसरा युवक लघुशंका निवारण के लिए दूर चला जाता है।

अब सुनिए बातचीत अधेड़ और सूट-बूट वाले की बातचीत:

"बहुत डिरा गे रहन, लाला.. अइस लाग कि आज काट डारे जइबे.."


"क्यों अंकल, क्या हुआ, यहां तो डर की कोई बात नहीं।"


"तुम लोगन का दीख तो लगा कि कटुआ आ गए, हमैं लाग कि अब ई हमका मारि डरिहैं..हम राम भक्त हन न।"


"आपको क्यों लगा कि हम कटुआ हैं?"


"तुम तो राम भक्त हो। डर तुम्हारे दोस्त से लगा। पठान सूट और नवाबी चोंचदार नागरा और साथै मा पिच्च-पिच्च पान। जइसेहे देखा तो कम्बल के भीतर घुसि गएन। मुझको जान में जान तो तब आई जब तुमने जय श्रीराम का उदघोष किया। और गले मिलते ही लगा कि होय न होय ये आदमी पंद्रह बिस्वा से कम का तो हो नहीं सकता..,.अब जरा एक सिगरेट पिला देव।"


"चच्चा, यही आखिरी सिगरेट है जो मेरे मुंह में लगी है। जूठी सिगरेट कैसे दे दूं आपको"


"भक्तों और नशेबाजों में जूठा नहीं माना जाता।"


"सिगरेट का पैक अटैची में है, ट्रेन में पिलाऊंगा।"


"ठीक है, उरई तक साथ रहेगा...वैसे तुम्हारा गांव-घर कहां है?"

"राजपुर, चित्रकूट।"


"गोस्वामी जी के गांव के आहिव, तबहीं... वैसे हियां कानपुर मा कहां रहत हौ?"


"चमनगंज।"


"हुअन तो मुसलमानी बस्ती है!! वैसे आपका नाम क्या है?"

"मतीन अहमद क़ुरैशी।"


"और साथी का नाम?"


"विनय कुमार मिश्रा।"


इतना सुनने के बाद कम्बल में छिपने वाला बेन्च से उठ खड़ा होता है।


"जीआरपी तक जा रहा हूं। एक साथी है वहां। सोचता हूं भेंट कर आऊं।"


इतना कह कर कम्बल प्लेटफॉर्म नम्बर एक की ओर चल जाता है।



नोट : यह कहानी गप्प न होकर सरासर सच्च है। इसके एक पात्र पठान सूट वाले विनय मिश्रा उर्फ बीनू अब दुनिया में नहीं हैं। बीनू को कर्फ्यू कार पास लेखक ने ही दिया था। बीनू के छोटे भाई वरुण मिश्रा उर्फ सोनू से तस्दीक़ कर सकते हैं। वरुण इस वक़्त एक सियासी पार्टी के प्रदेश स्तरीय नेता हैं। 

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