...और रेत के क़िले की तरह गंगा में समा गया पुस्तैनी मकान

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प्रारब्ध न्यूज ब्यूरो

वो
4 जुलाई का दिन था, आसमान में सूरज सर के ठीक ऊपर था। गाँव में उस रोज़ गंगा की लहरें अपने पूरे शबाब पर थीं। गंगा की भयावह लहरों से उठतीं आवाजें किसी अनहोनी की चेतावनी दे रही थीं। शायद, आज बता रहीं थीं कि सैलाब में कई ज़िन्दगियाँ बिखरने वाली हैं। हालात का मारा हमारा गाँव, जो धीरे-धीरे हर साल उजड़जा जा रहा था। गंगा की लहरों ने पहले गाँव के सामने के खेतों को अपने आगोश में लिया। उसके बाद एक-एक कर घरों को अपने गर्भ में समाना शुरू कर दिया। हम बात कर रहे हैं गाजीपुर जिले के शेरपुर ग्राम पंचायत के शिवराय का पूरा की। इस गांव का अस्तित्व वर्ष 2013 की गंगा की बाढ़ में लगभग समाप्त हो चुका है। अब किनारे पर इक्का-दुक्का घर द्वार ही बचे हैं, जो अपनी बदहाली पर सिवाय आंसू बहाने के कुछ नहीं कर सकते। हमेशा एक दहशत के साए में रहते हैं कि न जाने कब उनकी बारी आ जाए। 
शिवराय का पूरा गाँव की फाइलफोटो
बात उस समय की है जब गंगा का जलस्तर लगातार बढ़ता जा रहा था। कटान से अब तक 25-30 घर अपना वजूद खो चुके थे, लेकिन हमें कतई अंदाज़ा नहीं था कि हमारा नंबर भी आने वाला है। उस दिन से एक साल पहले भी कटान हुई थी, उस रोज़ ऐसा लगने लगा था कि अब हमारा घर नहीं बचेगा। गनीमत रही कि पिछले साल कटान घर के बिल्कुल सामने आकर रूक गई। एक साल तक हम लोग गंगा की गोद में पले और यह भूल गए कि अगले साल फिर तबाही होगी। फिर से कटान शुरू होगी और हम ग्रामीणों के घर एक-एक कर गंगा में समाएँगे। हम ग्रामीण गंगा को सिर्फ़ एक नदी नहीं मानते हैं बल्कि उन्हें माँ का दर्जा देते हैं। इसलिए दिल मानने को राज़ी नहीं होता कि हमारे बसे-बसाये घर कटान में मां के गर्भ में समा जाएंगे। उस साल हम यही कयास लगाते रहे और ख़ुद को तसल्ली देते रहे कि अब कटान नहीं होगी। पानी शांत है, इधर दबाव भी कम हो गया है, ये कयास बहुत भारी पड़े।
उस रोज़ दोपहर अचानक बाढ़ ने रौद्र रूप धारण कर तबाही मचानी शुरू कर दी। तब तक हमें सामान की पैकिंग का तजुरबा हो गया था, क्योंकि पिछले कई बरसों से बारिश के मौसम में करना पड़ता था। इसलिए सैकड़ों वर्षों से बसी-बसायी गृहस्थी को महज़ कुछ घंटों में समेट लिया। गाँव के लोगों ने इस मुश्किल घड़ी में बहुत मदद की। न जाने कितने लोग आते गए और सामान वहाँ से हटता चला गया। ग्रामीणों की मदद की वजह से वक़्त रहते पूरा घर ख़ाली हो गया। शाम के लगभग 4 बजे मैंने छोटी सी उम्र में वो भयानक मंज़र देखा, जिसे याद करने पर आज भी दिल बैठ जाता है। हमारी नज़रों के सामने देखते ही देखते हमारा पुस्तैनी मकान गंगा में रेत के क़िले की तरह ढहता चला गया। उससे हमारी न जाने कितनी यादें, न जाने कितने अरमान जुड़े थे। अपने पुरखों के घर को आँखे के सामने धराशाही होते देखने का मंजर भुलाए नहीं भूलता है। सिर्फ़ एक पल में हमारे सर से छत और पैरों के नीचे से ज़मीन सरकती चली गई। हमारे साथ कभी ऐसा कुछ होगा, मैंने इसकी सपने में भी कल्पना नहीं की थी। मैं स्तब्ध होकर इस मंजर को देखता रह गया। सहसा, मुझे एक पल के लिए यकीन नहीं हुआ, लेकिन तब तक हम बेघर हो चुके थे। ख़ैर, इसके बाद की कहानी तो और भी लंबी है। सब कुछ गंवाने के बाद हमने क्या किया, कैसे फिर से गृहस्थी बसायी। क्या-क्या किया और क्या-क्या सहा, ये सिर्फ़ हमने ही नहीं, बल्कि समूचे गाँव ने देखा और सहा।

शून्य से शुरूआत 

घर क्या होता है। गृहस्थी क्या होती है। पड़ोसी और गाँव क्या होता है। यह सब बहुत नज़दीक से समझा। घर की तामीर कैसे होती है, गृहस्थी कैसे बसायी जाती है। गिरने के बाद कपड़ों से धूल झाड़कर फिर से उठ खड़े होने के प्रयासों को मैंने बहुत करीब से देखा और महसूस किया है। गाँव क्या होता है, यह उस दिन समझ में आया जिस दिन गाँव तितर-बितर हो गया। अब सब एक ख़्वाब सा लगता है कि हमारा भी गाँव था। उसमें हमारा एक घर और अगल-बगल बसे पड़ोसी थे। गाँव की गलियाँ ऐसी थी वहाँ हर तरह के लोग थे। जब भी यह चीजें जेहन में आती हैं तो दिमाग सुन्न सा हो जाता है। इस तबाही ने हमें काफ़ी कुछ सिखाया और मुझे तो इसने वक़्त से पहले बड़ा बना दिया। इतना तो ज़रूर कहूँगा कि ऊपरवाला किसी से उसका घर और गृहस्थी कभी न छीने। जैसा हमारे कुटुंब के साथ हुआ, वैसा दुनिया में किसी के साथ न घटे। जिस घर को अपने हाथों से सँवारा है, जिसे बनाने में न जाने कितनी पुश्तों ने अपना ख़ून-पसीना बहाया। उस घर को अपनी ही आँखों के सामने मिट्टी में मिलते देखना दर्दनाक है...। 

लेखक : समीर कुमार राय। 
(बाढ़ पीड़ित विस्थापित)

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